रंग में अगर तूलिका डूबने से इन्कार करे तो चित्र कैसे बनेगा ...रंग मे डूब कर वह रंगीन हो जाती है ॥
त्याग देती है अपने सपनों को महज़ इसलिए की खूबसूरती झलके सफ़ेद की सत्रंगियों का ....
लाल पीला हरा नीला सब तो चाहते हैं उसका संस्पर्स ...वह किसे मना करे कैसे करे ...कोई तूलिका का दर्द नहीं समझता ...
भीगती हुई कागज़ पर क्रीडा करती है बेमन से सिर्फ़ इसलिए की एक चित्र बन सके ,ऐसा चित्र जिसका रूप रंग आकर अनिश्चित है ....
रंग उसके नस-नस में भेद जाता है ,,मिटा देता है उसके अस्तित्व को जड़ से ....
तूलिका व्यथित है ...सिर्फ़ साधन बनती है साधक का ...
निःस्वार्थ भाव से स्वयंम को चूसने देती है ...
वहीं तूलिका जब भीग-भीग कर सुख जाती है तब फ़ेंक दी जाती है कचरे के कोनें में ..........
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