Tuesday, June 10, 2008

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वे कुछ ज्यादा लहलहा रहे थे ....
आत्ममुल्यांकन के अभाव में ,पानी की जगह रक्त पी रहे थे .....
समय ने चलना सीखा है ,ऐसा अवसर आ ही गया ....
वे स्वयंम उस रक्त से सींचित थे,जिनमें आक्रोश भरा था...
उनके लहलहाते शरीर में सूखे वृक्षों की लहू थी ...
खून तो रंग लाता ही है ...
उनमें स्वयंम क प्रति विरोध उमड़ा,,
निर्दोष वृक्षों में पुनः बहार आ गई ....

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