Tuesday, April 14, 2009

गर्मी की दोपहरी थी
पसीने से लथपथ ,बोझिल ...
...कुछ ताजे हवा के झोंकें ने मुझे बाहर निकलने को विवश किया
बाहर जाने पर गावं की पगडंडियों ने जहाँ ले जाना चाहा ,मुझे मै गई ....
देखा तो
खेत खलिहानों में सूखे पैरो के ढेर ,वृक्ष के निचे मवेशियों के झुंड आराम कर रहे थे .....
वही पलाश के फूलों ने दूर-दूर तक जंगल में मखमली लाल आसमा बिछा रखा था ....
एक वही था जो मुस्कुरा रहा था उस भरी गर्मी में ....और
प्रेरित किया मुझे मुस्कुराने के लिए ,घर लौट जाने के लिए और हर मौसम में खिलखिलाने के लिए .......

न तू बड़ा न मै ...

एक दुसरे से लड़ लड़ कर ,इंसान इंसान को भूल जाता है ...
हिंदू मुस्लिम से और मुस्लिम इसाई से ,अंदर ही अंदर घृणा करता है ...
एक ने कहा तेरी जात छोटी है ,तू बड़ा नही हो सकता ...
दूजे ने कहा तेरी औकात छोटी है ,तू बड़ा नही हो सकता ॥
इसी जद्दोजहद में एक दुसरे की टांग खिची ...
न बढ़ सके ख़ुद, न बढ़नें दिया किसी को .....
क्योंकि वो जमीं पे थे गड्ढा खोदने में व्यस्त .....
एक दिन जब मौत आई .....तब आत्मा ने कहा ....
न तू बड़ा न मै बड़ा ....
हर किसी को एक गज जमीं ही चाहिए अंत में समाने के लिए ...............