Friday, December 18, 2009

mere aansun mera aaina

ओश की बूंदों को हथेली में लेकर
उसमें देखनी चाही अपनी तस्वीर ,
शायद मेरे आंसूं मुझे आइना दिखा सके
मेरे प्रतिबिम्ब की एक झलक ..
मेरे अतीत की, जब मै हंसती थी ,मुस्कुराती थी ..,
खिलखिलाती थी बच्चे की तरह ...
सपने लेकर हाथ में ....हर पल हर समय ...,
आज वही चेहरा मेरे आंसुओं ने दिखाया मुझे ...
मेरा चेहरा ,विश्वास से भरा ,ख़ुशी बांटती हुई ,औरों को आश्वस्त करता हुआ चेहरा ..
आंसू भी अपने दोस्त होते हैं ,हमें आइना दिखाते हैं ,जब हम टूट जातें है,भटक जातें है
इस रफ़्तार से भरी सख्त दुनिया में .... जब सिर्फ जीने लगते है ....जिन्दादिली भूल के .

Tuesday, April 14, 2009

गर्मी की दोपहरी थी
पसीने से लथपथ ,बोझिल ...
...कुछ ताजे हवा के झोंकें ने मुझे बाहर निकलने को विवश किया
बाहर जाने पर गावं की पगडंडियों ने जहाँ ले जाना चाहा ,मुझे मै गई ....
देखा तो
खेत खलिहानों में सूखे पैरो के ढेर ,वृक्ष के निचे मवेशियों के झुंड आराम कर रहे थे .....
वही पलाश के फूलों ने दूर-दूर तक जंगल में मखमली लाल आसमा बिछा रखा था ....
एक वही था जो मुस्कुरा रहा था उस भरी गर्मी में ....और
प्रेरित किया मुझे मुस्कुराने के लिए ,घर लौट जाने के लिए और हर मौसम में खिलखिलाने के लिए .......

न तू बड़ा न मै ...

एक दुसरे से लड़ लड़ कर ,इंसान इंसान को भूल जाता है ...
हिंदू मुस्लिम से और मुस्लिम इसाई से ,अंदर ही अंदर घृणा करता है ...
एक ने कहा तेरी जात छोटी है ,तू बड़ा नही हो सकता ...
दूजे ने कहा तेरी औकात छोटी है ,तू बड़ा नही हो सकता ॥
इसी जद्दोजहद में एक दुसरे की टांग खिची ...
न बढ़ सके ख़ुद, न बढ़नें दिया किसी को .....
क्योंकि वो जमीं पे थे गड्ढा खोदने में व्यस्त .....
एक दिन जब मौत आई .....तब आत्मा ने कहा ....
न तू बड़ा न मै बड़ा ....
हर किसी को एक गज जमीं ही चाहिए अंत में समाने के लिए ...............

Monday, March 30, 2009

बचपन

तितलियाँ पकड़ कर पुस्तक में दबाना .......
मोरे पंख के दुगने होने की उम्मीद से पन्नों में सजाना ....
चिड़ियों के लिए घोसला बनाना .....स्कूल बस्ते में भरे खाना खजाना ....
और उन्मुक्त गलियों में गाना बजाना ...
गुड्डे गुडियों की शादी कराना ...
......बिना कल की चिंता किए सो जाना॥
इंसान बचपन सा जिए अगर पुरी जिंदगी .....तो कितना आसान है ....ये सफर कट जाना......

सिसकी

दूर कहीं कोने में बैठा कोई सिसकियाँ ले रहा था ....
मेरे जमीर ने मुझसे कहा -जाओ शायद तुम्हारा उनसे परिचय हो ,
और तुम किसी को सिसकियों से मुक्त करा सको ....
मै करीब गई तो बेबस ,हारे हुए इंसान के साथ `सिसकी `थी .....
वो चाह कर भी इंसान को छोड़ नही पा रही थी ....
क्यों ???
इंसान का मनोबल ही जब टूट चुका हो ....
इंसान स्वयम जब खुद से हारना चाहे ....
इंसान जब अपने ही भावनाओं के अधीन हो ,
तो गम ,, यहाँ तक हार भी उसे छोड़ना नही चाहती ....