मेरा मन करना चाहता है हजारों बातें ....
आँखें तलाशती है तुम्हे ,हर पल हर जगह
चाहती है बयां करना तुमसे ,मेरे मन की गहराइयों में छुपे असीम प्यार को
सोचती हूँ वीना के तार जो तुमने छेड़ दिए हैं
कैसे शांत करूं ,कैसे सुनाऊँ
या राग छेड़ दूँ प्यार का
कैसे रोकूँ ह्रदय के स्पंदन को
क्या पता तुम भी मचलते हो या नहीं मेरा सानिध्य पाने को ?
या यूँ ही एक आकर्षण है मेरा प्यार
या बचकानेपन का एक अरमां ही है तुम्हे पाने का
क्या तुम भी डरते हो हमारा प्यार बताने मे जमाने को
चाहे जो भी इसका लक्ष्य या अंजाम
ये मेरा प्यार न कभी हो बदनाम
बस समंदर की तरह सहेजूंगी
नही बयां करुँगी ,,न तुम्हे और न ज़माने को
Tuesday, June 10, 2008
कौन आया है मेरे कब्र पर ......
कौन आया है मेरे कब्र पर ...की मौत ने मेरे मुझे मजार बना दिया
जीते जी तो समझ न सके मुझे
की मौत को भी मेरे उधार बना दिया
झंझावातों को झेलती चली गई
क़दमों की लकीर मिटती चली गई
शान्ति से मर भी नही सकती
की मौत को भी मेरे त्यौहार बना दिया
भावनाओं को मार कर तरक्की की बात करते है वो
की मेरी आंसूं भरी आंखों को भी ,,सुखा सुना निर्जीव संसार बना दिया
कुरेदते रहे मेरे मन के महीन जख्मों को
की सुलग रही थी मैं अंगार बना दिया
आंखों से बरसती थी प्यार की बूंदें
पल्लवित होता था स्नेह के तले
कोटी कोटी भावनाएं इस संसार के लिए
की जला जला के उन्होनें मुझे थार बना दिया .....
जला जला के मुझे उन्होनें 'थार ' बना दिया
जीते जी तो समझ न सके मुझे
की मौत को भी मेरे उधार बना दिया
झंझावातों को झेलती चली गई
क़दमों की लकीर मिटती चली गई
शान्ति से मर भी नही सकती
की मौत को भी मेरे त्यौहार बना दिया
भावनाओं को मार कर तरक्की की बात करते है वो
की मेरी आंसूं भरी आंखों को भी ,,सुखा सुना निर्जीव संसार बना दिया
कुरेदते रहे मेरे मन के महीन जख्मों को
की सुलग रही थी मैं अंगार बना दिया
आंखों से बरसती थी प्यार की बूंदें
पल्लवित होता था स्नेह के तले
कोटी कोटी भावनाएं इस संसार के लिए
की जला जला के उन्होनें मुझे थार बना दिया .....
जला जला के मुझे उन्होनें 'थार ' बना दिया
मुझे प्यार दो या बिसार दो......
मैं भी संवर सकूं , निखर सकूं
मेरे साथ-साथ ही चला करो
मेरा हाथ ही क्यों न थाम लो
मैं सहम चुकी हूँ बहार से
मुझे प्यार दो मुझे प्यार दो
ना ही दूर मुझसे रहा करो
तुम क्यों न मेरा ही साथ दो
मुझे मंजिलों की तलाश है
मुझे मीत अपना ही मान लो
मुझे प्यार दो मुझे प्यार दो
जो मैं चली गई तो फिर न आऊंगी
की मुझे गम भी उनका अज़ीज़ है
मुझे अपने हाथ का सहार दो
मेरी जिंदगी को संवार दो
मुझे थाम लो मुझे रोक लो
मुझे प्यार दो या बिसार दो
मेरे साथ-साथ ही चला करो
मेरा हाथ ही क्यों न थाम लो
मैं सहम चुकी हूँ बहार से
मुझे प्यार दो मुझे प्यार दो
ना ही दूर मुझसे रहा करो
तुम क्यों न मेरा ही साथ दो
मुझे मंजिलों की तलाश है
मुझे मीत अपना ही मान लो
मुझे प्यार दो मुझे प्यार दो
जो मैं चली गई तो फिर न आऊंगी
की मुझे गम भी उनका अज़ीज़ है
मुझे अपने हाथ का सहार दो
मेरी जिंदगी को संवार दो
मुझे थाम लो मुझे रोक लो
मुझे प्यार दो या बिसार दो
जिंदगी जब भी गुनगुनाएगी.....
जिंदगी जब भी गुनगुनाएगी,होठों से सिर्फ़ निकलेगा तुम्हारा नाम ....
पलकों से ढूलक कर आँसूं कभी ,भूलना चाहेंगें तेरा नाम ...
दामन समेट लेंगें उन अश्कों को सोच तेरा पैगाम .....
जिंदगी जब भी .......
भंवरें कभी चूमेंगे जब पंखुडियों को ...
खुशबू उड़ जायेगी सोच कर तेरा नाम ......
जिंदगी जब भी ...
बुलबुलों सी बनेगी मिटेगी एक कहानी इस पानी के अन्दर
फिर देख छवि तुम्हारी ,,भूल जाएगा मेरा नाम ....
जिंदगी जब भी .....
सुलगती आग में जलते सपने ,,निकलना चाहेंगे कभी मेरे लिए ...
सहम जाएगा आँचल मेरा उन्हें समेटने के लिए .....
जिंदगी जब भी .....
कभी मंजिल पर पहुँच भी गई
मंजिल रूठा सा रहेगा सोच कर फिर तेरा नाम
जिंदगी जब भी ........
रास्ते ढूंढेंगे जब कभी
सिंदूरी आभा के पलाश कभी
रूक जायेंगे पाँव वहीं
देख पुराने पदचिन्हों में रंगी सिन्दूरी शाम ......
पलकों से ढूलक कर आँसूं कभी ,भूलना चाहेंगें तेरा नाम ...
दामन समेट लेंगें उन अश्कों को सोच तेरा पैगाम .....
जिंदगी जब भी .......
भंवरें कभी चूमेंगे जब पंखुडियों को ...
खुशबू उड़ जायेगी सोच कर तेरा नाम ......
जिंदगी जब भी ...
बुलबुलों सी बनेगी मिटेगी एक कहानी इस पानी के अन्दर
फिर देख छवि तुम्हारी ,,भूल जाएगा मेरा नाम ....
जिंदगी जब भी .....
सुलगती आग में जलते सपने ,,निकलना चाहेंगे कभी मेरे लिए ...
सहम जाएगा आँचल मेरा उन्हें समेटने के लिए .....
जिंदगी जब भी .....
कभी मंजिल पर पहुँच भी गई
मंजिल रूठा सा रहेगा सोच कर फिर तेरा नाम
जिंदगी जब भी ........
रास्ते ढूंढेंगे जब कभी
सिंदूरी आभा के पलाश कभी
रूक जायेंगे पाँव वहीं
देख पुराने पदचिन्हों में रंगी सिन्दूरी शाम ......
दीपक .....
सदन के किसी कोनें में जलता छोटा सा दीपक ....
कोटी-कोटी प्रेरणा से पूर्ण ,,विकिरित कर रहा स्वर्ण रश्मियाँ ...
इस जहान के लिए प्रीती उसकी छलक रही ...
राह रौशन करती अनेक लोगों की ,,अपरिचित किंतुंअपनों की ....
सिर्फ़ जलता जा रहा है पुरी लगन और समर्पण के साथ ...
न जलने की परवाह है न बुझने की ....
उसे थोड़ा गर्व हुआ स्वयं पर ....
स्वयं ही विकिरित किरणों ने जगाया उसे ...
तब भान हुआ उसे ...
वह अकेले नही है तेल और बाती भी हैं
जो उसके साथ जल रहें हैं ....
वस्तुतः इंसान भी है ......दीप सा स्वयंम प्रकाशित स्वयंम समाहित .....
कोटी-कोटी प्रेरणा से पूर्ण ,,विकिरित कर रहा स्वर्ण रश्मियाँ ...
इस जहान के लिए प्रीती उसकी छलक रही ...
राह रौशन करती अनेक लोगों की ,,अपरिचित किंतुंअपनों की ....
सिर्फ़ जलता जा रहा है पुरी लगन और समर्पण के साथ ...
न जलने की परवाह है न बुझने की ....
उसे थोड़ा गर्व हुआ स्वयं पर ....
स्वयं ही विकिरित किरणों ने जगाया उसे ...
तब भान हुआ उसे ...
वह अकेले नही है तेल और बाती भी हैं
जो उसके साथ जल रहें हैं ....
वस्तुतः इंसान भी है ......दीप सा स्वयंम प्रकाशित स्वयंम समाहित .....
.........
वे कुछ ज्यादा लहलहा रहे थे ....
आत्ममुल्यांकन के अभाव में ,पानी की जगह रक्त पी रहे थे .....
समय ने चलना सीखा है ,ऐसा अवसर आ ही गया ....
वे स्वयंम उस रक्त से सींचित थे,जिनमें आक्रोश भरा था...
उनके लहलहाते शरीर में सूखे वृक्षों की लहू थी ...
खून तो रंग लाता ही है ...
उनमें स्वयंम क प्रति विरोध उमड़ा,,
निर्दोष वृक्षों में पुनः बहार आ गई ....
आत्ममुल्यांकन के अभाव में ,पानी की जगह रक्त पी रहे थे .....
समय ने चलना सीखा है ,ऐसा अवसर आ ही गया ....
वे स्वयंम उस रक्त से सींचित थे,जिनमें आक्रोश भरा था...
उनके लहलहाते शरीर में सूखे वृक्षों की लहू थी ...
खून तो रंग लाता ही है ...
उनमें स्वयंम क प्रति विरोध उमड़ा,,
निर्दोष वृक्षों में पुनः बहार आ गई ....
तूलिका का दर्द .........
रंग में अगर तूलिका डूबने से इन्कार करे तो चित्र कैसे बनेगा ...रंग मे डूब कर वह रंगीन हो जाती है ॥
त्याग देती है अपने सपनों को महज़ इसलिए की खूबसूरती झलके सफ़ेद की सत्रंगियों का ....
लाल पीला हरा नीला सब तो चाहते हैं उसका संस्पर्स ...वह किसे मना करे कैसे करे ...कोई तूलिका का दर्द नहीं समझता ...
भीगती हुई कागज़ पर क्रीडा करती है बेमन से सिर्फ़ इसलिए की एक चित्र बन सके ,ऐसा चित्र जिसका रूप रंग आकर अनिश्चित है ....
रंग उसके नस-नस में भेद जाता है ,,मिटा देता है उसके अस्तित्व को जड़ से ....
तूलिका व्यथित है ...सिर्फ़ साधन बनती है साधक का ...
निःस्वार्थ भाव से स्वयंम को चूसने देती है ...
वहीं तूलिका जब भीग-भीग कर सुख जाती है तब फ़ेंक दी जाती है कचरे के कोनें में ..........
......
बारिश की सिंदूरी शाम ....
शून्य में झांकता सुना मन ...
न दुःख न खुशी ...
एक स्थिर अविराम शाम....
आश्रय तलाशते कुछ लोग ...
खपरैल क घरों में ...
उन्हें शय कहाँ मिलता ...
वो घर वो लोग स्वंयम ....भीग रहे थे अन्दर -बाहर,दोनों ओर से .....
वो देख रहे थे एक दुसरे को ...
नम आंखों से बयां करते व्यथा अपनी
हाथ बढे अपनाने के लिए ॥ तब बारिश स्वयंम थम गई .....
शायद बादल भी बरस रहा था उनके साथ साथ ....
अब उसे किसी हाथ या सहारे की जरुरत नही थी ........
शून्य में झांकता सुना मन ...
न दुःख न खुशी ...
एक स्थिर अविराम शाम....
आश्रय तलाशते कुछ लोग ...
खपरैल क घरों में ...
उन्हें शय कहाँ मिलता ...
वो घर वो लोग स्वंयम ....भीग रहे थे अन्दर -बाहर,दोनों ओर से .....
वो देख रहे थे एक दुसरे को ...
नम आंखों से बयां करते व्यथा अपनी
हाथ बढे अपनाने के लिए ॥ तब बारिश स्वयंम थम गई .....
शायद बादल भी बरस रहा था उनके साथ साथ ....
अब उसे किसी हाथ या सहारे की जरुरत नही थी ........
Monday, June 9, 2008
नारी की सीमारेखा ....
धीरज ,सब्र,धैर्य ,सहनशीलता .....एक सीमारेखा है जीवन में ।
इसे लांघना दुष्कर है ,और इसे नारी क्यों लांघे ?
सीमायें ,हद बांधकर रखते हैं इन्सान को ,,अहसास दिलातें हैं नारी को ,की लक्षमणरेखा लंघोंगी तो रावन बैठें है बाहर ,मुँह बाए ,तुम्हें निगलने के लिए !वैसे भी दहलीज़ क बाहर क्या है बिसात औरत का ?
जब तक वह है किसी की बेटी ,किसी की पत्नी ,,किसी की माँ तब तक शिरोधार्य करता है समाज उसके अस्तित्व को .....
घर क अन्दर ही है सीमाएं उसके सम्मान की .....
बाहर निकलते ही नस्तर चुभती नज़रें ,,ललचाये कटाक्ष भावभंगिमाएँ ,
तब क्या वो किसी की माँ ,बेटी ,,या पत्नी नही होती ?
क्या समाज लक्षमणरेखा नहीं खींच सकता ?क्या उसे सुरक्षित ,सुरभित हवा नही दे सकता ?
बात मर्यादा की करता है समाज ,पुरूष जो ठेकेदार हैं समाज के .......क्या उनकी पशुता अपने पराये का भेद देख्कर
उमड़ता है ..अगर हाँ तो हर पुरूष पशु है
और हर औरत के लिए ही क्यों लक्षमणरेखा है ?
दोहरे मापदंड क्यों है नारीत्व को परखने का ?
नारी को कुलटा बनानेवाला भी तो पुरूष ही तो है, फिर क्यों कुलटा का उद्धार करने में उन्हें शर्म आती है ....
सीमा लांघना रावन ने ही तो सिखाया ,,अपनी विवशता का वास्ता दे कर ....
सीता क्यों पतित हो गई थी ,,,रामराज में क्यों उसे अग्निपरीक्षा देनी पड़ी ....
इसे लांघना दुष्कर है ,और इसे नारी क्यों लांघे ?
सीमायें ,हद बांधकर रखते हैं इन्सान को ,,अहसास दिलातें हैं नारी को ,की लक्षमणरेखा लंघोंगी तो रावन बैठें है बाहर ,मुँह बाए ,तुम्हें निगलने के लिए !वैसे भी दहलीज़ क बाहर क्या है बिसात औरत का ?
जब तक वह है किसी की बेटी ,किसी की पत्नी ,,किसी की माँ तब तक शिरोधार्य करता है समाज उसके अस्तित्व को .....
घर क अन्दर ही है सीमाएं उसके सम्मान की .....
बाहर निकलते ही नस्तर चुभती नज़रें ,,ललचाये कटाक्ष भावभंगिमाएँ ,
तब क्या वो किसी की माँ ,बेटी ,,या पत्नी नही होती ?
क्या समाज लक्षमणरेखा नहीं खींच सकता ?क्या उसे सुरक्षित ,सुरभित हवा नही दे सकता ?
बात मर्यादा की करता है समाज ,पुरूष जो ठेकेदार हैं समाज के .......क्या उनकी पशुता अपने पराये का भेद देख्कर
उमड़ता है ..अगर हाँ तो हर पुरूष पशु है
और हर औरत के लिए ही क्यों लक्षमणरेखा है ?
दोहरे मापदंड क्यों है नारीत्व को परखने का ?
नारी को कुलटा बनानेवाला भी तो पुरूष ही तो है, फिर क्यों कुलटा का उद्धार करने में उन्हें शर्म आती है ....
सीमा लांघना रावन ने ही तो सिखाया ,,अपनी विवशता का वास्ता दे कर ....
सीता क्यों पतित हो गई थी ,,,रामराज में क्यों उसे अग्निपरीक्षा देनी पड़ी ....
मेरी शिक्षक
प्रतिदिन नवसृजन करती है ....
प्रतिदिन नवराह रौशन करती है ...पुरी जिंदगी उनकी एक तपस्या है ....
एक तपस्या जिसमें वह सिर्फ़ साध्य बनती है ....
तपस्या पर पर उनके अपनों के लिए .....
सारी दुनिया उनकी अपनी है ...
वह जननी है जहान् की
संबल सुदुढ़ व्यक्तित्व उनका प्रेरित करता अनेक को
मूक की भाषा जाने वो
अंतर्मन को पहचाने उसकी
दीपक जलता है जैसे निःस्वार्थ
शिक्षक समर्पित है संसार को उसी तरह
गर्भ से अंत तक सिर्फ़ सृजन उनका धर्मं है
उनके आँचल की छाया में पल्लवित होता है ज्ञान
उनका शय निष्पक्ष होता है
वह समदर्शी है वह महान है ..........क्योंकि वह सृजनकर्ता है जौहरी है ......
प्रतिदिन नवराह रौशन करती है ...पुरी जिंदगी उनकी एक तपस्या है ....
एक तपस्या जिसमें वह सिर्फ़ साध्य बनती है ....
तपस्या पर पर उनके अपनों के लिए .....
सारी दुनिया उनकी अपनी है ...
वह जननी है जहान् की
संबल सुदुढ़ व्यक्तित्व उनका प्रेरित करता अनेक को
मूक की भाषा जाने वो
अंतर्मन को पहचाने उसकी
दीपक जलता है जैसे निःस्वार्थ
शिक्षक समर्पित है संसार को उसी तरह
गर्भ से अंत तक सिर्फ़ सृजन उनका धर्मं है
उनके आँचल की छाया में पल्लवित होता है ज्ञान
उनका शय निष्पक्ष होता है
वह समदर्शी है वह महान है ..........क्योंकि वह सृजनकर्ता है जौहरी है ......
चाँद को पाने की जिद .....
चाँद की जिद कर बैठी थी बचपन में ......
हवाओं में हाथ फिरा कर पापा ने कहा ---लो बेटी ये है चाँद
मैंने भी पुलकित होते हुए नन्हें -नन्हें हाथों में उसे पकड़ा ॥
कितनी संतुष्टि थी खुशी थी उस बचकानेपन में
आज भी वैसे ही वास्तविकता से दूर ,,कल्पनाओं में मुश्कुराना चाहती हूँ ......
चाँद को पाना चाहती हूँ उसी सहज तरीके से ......
हवाओं में हाथ फिरा कर पापा ने कहा ---लो बेटी ये है चाँद
मैंने भी पुलकित होते हुए नन्हें -नन्हें हाथों में उसे पकड़ा ॥
कितनी संतुष्टि थी खुशी थी उस बचकानेपन में
आज भी वैसे ही वास्तविकता से दूर ,,कल्पनाओं में मुश्कुराना चाहती हूँ ......
चाँद को पाना चाहती हूँ उसी सहज तरीके से ......
वो पल .....
वो पल तो मेरे हैं ....
घर से दूर ,घर के बहुत करीब ,
एक उद्देश्य लेकर .......
नन्हें पावों ने गाँव छोड़ा था ...
नन्हें हाथों में school बैग का बोझा ढोते -ढोते ...
अनजाने में सफलता के सोपान तय करती गई ॥
शिखर पर पहुचते तक अहसास ही न था ....मेरे पाँव शिखर पर हैं ...
उस शिखर पर जहाँ से क्षितिज बहुत समीप है ...
जहाँ सपने और वास्तविकता आलिंगन करते हैं ...
अब आगे क्या होगा क्या नहीं ,,जाने मेरी जिंदगी
हक़ उसे ही दे बैठी हूँ
चाहे जहाँ ले जाए मुझे ...
अब डर नही है सफलता -असफलता का .....जन्म मरण का क्योंकि .........अब भी तो वो पल मेरे हैं .....
घर से दूर ,घर के बहुत करीब ,
एक उद्देश्य लेकर .......
नन्हें पावों ने गाँव छोड़ा था ...
नन्हें हाथों में school बैग का बोझा ढोते -ढोते ...
अनजाने में सफलता के सोपान तय करती गई ॥
शिखर पर पहुचते तक अहसास ही न था ....मेरे पाँव शिखर पर हैं ...
उस शिखर पर जहाँ से क्षितिज बहुत समीप है ...
जहाँ सपने और वास्तविकता आलिंगन करते हैं ...
अब आगे क्या होगा क्या नहीं ,,जाने मेरी जिंदगी
हक़ उसे ही दे बैठी हूँ
चाहे जहाँ ले जाए मुझे ...
अब डर नही है सफलता -असफलता का .....जन्म मरण का क्योंकि .........अब भी तो वो पल मेरे हैं .....
कैसे आपके लिए मेरा प्यार......
कैसे मे आपके लिए अपना प्यार लिखूं ....
जैसे बादल के लिए पर्वत का प्यार लिखू
या ग्रीष्म के लिए सावन का फुहार लिखू .....
या चकवा चकवी का निहार लिखूं
या गुलाबी ठंड में बसंती बयार लिखूं ....
कैसे में आपके लिए अपना प्यार लिखूं ....
या तुमसे ही मेरे उपवन में बहार ही बहार लिखूं...
या तुम्हें अपने सपनों
का कहार लिखूं...
क्या लिखूं कैसे लिखूं .......
या पथरीली राहों में आगे बढ़ता या पीछे हटता अपना प्यार लिखूं
या तुमसे ही मेरे नगमें हज़ार लिखूं.....
हाँ छोटे-छोटे लब्जों में बंद
मेरा असीम प्यार है ........
मेरी सीमित दायरे में बंधी जिंदगी में ..........तुम्हारे लिए............
जैसे बादल के लिए पर्वत का प्यार लिखू
या ग्रीष्म के लिए सावन का फुहार लिखू .....
या चकवा चकवी का निहार लिखूं
या गुलाबी ठंड में बसंती बयार लिखूं ....
कैसे में आपके लिए अपना प्यार लिखूं ....
या तुमसे ही मेरे उपवन में बहार ही बहार लिखूं...
या तुम्हें अपने सपनों
का कहार लिखूं...
क्या लिखूं कैसे लिखूं .......
या पथरीली राहों में आगे बढ़ता या पीछे हटता अपना प्यार लिखूं
या तुमसे ही मेरे नगमें हज़ार लिखूं.....
हाँ छोटे-छोटे लब्जों में बंद
मेरा असीम प्यार है ........
मेरी सीमित दायरे में बंधी जिंदगी में ..........तुम्हारे लिए............
oose chhatpatate huye karahate huye dekha
kareeb jaane par osme se ochshrinkhalta ki boo aa rahi thi
jindagi hairan hai ,pareshan hai....
shaid yah soch ki -insan kya chahta hai osse
tran pane ki ootkantha sahit jal rahi is sansar me...
kitne ajeeb unsulghe log...
jindagi bhikh mang rahi maut ki osse..
aur insan bamaksad bhatak raha astitwahin anukulta ki aas me
antatah mar gai jindagi ....
insan ko youn hi chhodh,,,,,
TAB SE INSA OSKI KHOJ ME HAI....
kareeb jaane par osme se ochshrinkhalta ki boo aa rahi thi
jindagi hairan hai ,pareshan hai....
shaid yah soch ki -insan kya chahta hai osse
tran pane ki ootkantha sahit jal rahi is sansar me...
kitne ajeeb unsulghe log...
jindagi bhikh mang rahi maut ki osse..
aur insan bamaksad bhatak raha astitwahin anukulta ki aas me
antatah mar gai jindagi ....
insan ko youn hi chhodh,,,,,
TAB SE INSA OSKI KHOJ ME HAI....
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